समुद्र मंथन की पौराणिक कथा और रहस्य | विष्णु पुराण | स्कंदपुराण

मित्रों स्कंद पुराण में वर्णित कथा के अनुसार एक समय देवराज इंद्र सभी लोक पालोंबा सभा में बैठे हुए थे वहां सिद्ध और विद्याधर गण उनकी विजय के गीत गा रहे थे उसी समय देवगुरु बृहस्पति जी अपने शिष्यों के साथ देव सभा में पधारे देव गुरु बृहस्पति को सभा में उपस्थित देख देवताओं ने सहसा उनके चरणों में मस्तक झुकाए इंद्रदेव ने भी देखा गुरुदेव बृहस्पति आगे खड़े हैं किंतु इंद्रदेव की बुद्धि राज मत में डूबी हुई थी इसलिए उन्होंने गुरु के प्रति ना तो आदर युक्त वचन कहा ना उन्हें बुलाया ना बैठने के लिए आसन दिया और ना चले जाने के लिए कहा खोटी बुद्धि वाले इंद्र को राज्य के मध्य से उन्मत जानकर देवताओं के आचार्य बृहस्पति कुपित वहां से अंतर्ध्यान हो गए उनके चले जाने पर देवताओं के मन में बड़ा खेद हुआ देवराज का गुरु के प्रति ऐसा व्यवहार को देखकर यक्ष नाग गंधर्व तथा ऋषि गण भी उदास हो गए फिर नृत्य और गीत समाप्त होने पर जब इंद्र सचेत हुए तब उन्होंने तुरंत देवताओं से पूछा महा तपस्वी गुरुदेव कहां चले गए तब नारद जी ने देवराज इंद्र से कहा कि हे देवराज आपके आचरण ने गुरु की अवहेलना की है जबकि आप जानते हैं कि गुरु के अनादर से राज्य अपने हाथ से चला जाता है अतः आप सब प्रकार के प्रत्न करके गुरु से अपने अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना कीजिए महात्मा नारद की बात सुनकर इंद्र सहस सिंहासन से उठकर खड़े हो गए और सभी सभा दसों के साथ गुरु के निवास स्थान पर पहुंच गए उस समय देवराज इंद्र अपने कर्तव्यों के प्रति सजग हो चुके थे
गुरु के निवास स्थान पहुंचकर इंद्रदेव ने गुरु की पत्नी तारा को देख उन्हें प्रणाम किया और पूछा देवी महा तपस्वी गुरुजी कहां गए हैं तारा ने इंद्र की ओर देखकर उत्तर दिया मैं नहीं जानती तब इंद्र देव अपने सभासदों सहित निवास को लौट आए इसी समय स्वर्ग में अनेकों अपशकुन होने लगे जो संपूर्ण स्वर्ग वासियों को तथा दुरात्मा इंद्र को भी दुख प्राप्ति की सूचना देने वाले थी उधर इंद्र की यह करतूत पाताल निवासी राजा बली ने भी सुनी फिर तो वे दैत्यों की बहुत बड़ी सेना साथ ले पाताल से अमरावती पुरी पर चढ़ाए उस समय देवताओं को दानवों के साथ बड़ा भयंकर युद्ध हुआ उसमें दैत्यों ने देवताओं को परास्त कर दिया एक ही क्षण में दैत्यों ने इंद्र के सातों अंक सहित संपूर्ण राज्य अपने अधिकार में ले लिया उसके बाद विजय दैत्य शीघ्र पाताल को चले गए इंद्र की राज्य लक्ष्मी नष्ट हो चुकी थी
इसलिए देवताओं ने भी सर्वथा उनका त्याग कर दिया इन सबसे दुखी होकर श्री हीन इंद्र स्वर्ग लोक से अन्यत्र चले गए कमल के समान कमनीय नेत्रों माली इंद्र पत्नी सची भी दूसरों की दृष्टि से छिपकर रहने लगी इरावत नामक हाती तथा उच्चय शरवा अश्र आदि जो बहुत से रत्न थे उन्हें दुष्ट दैत्यों ने लोभ वश स्वर्गलोक से पाताल लोक पहुंचा दिया परंतु वे रत्न पुण्यात्मा पुरुषों के ही उपभोग में आने वाले थे अतः दैत्यों के अधिकार में ना रहकर समुद्र में समा गए उस समय राजा बलि ने आश्चर्य चकित होकर अपने गुरु से कहा भगवान हम देवताओं को जीतकर बहुत से रत्न यहां पर लाए थे किंतु वे सभी समुद्र में समा ग यह तो बड़ी अद्भुत बात है राजा बली की बात सुनकर शुक्राचार्य ने कहा राजन 100 अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा लेकर उन्हें पूर्ण करने पर ही तुम्हारे देवताओं के राज्य पर अधिकार होगा जो 100 अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान कर लेता है वही स्वर्ग लोक के राज्य को भोगने का अधिकारी होता है अश्वमेध यज्ञ के किए बिना स्वर्ग की कोई भी वस्तु उपभोग में नहीं लाई जा सकती गुरु का यह वचन सुनकर राजा बली उस समय तो चुप हो गए और दानवों के साथ उचित कार्यों में लग गए दोस्तों आपको बता दूं कि शुक्र की कृपा से ही दैत्य गण इंद्रलोक को अपने अधिकार में कर पाए थे उधर इंद्र बड़ी सोचनीय दशा को प्राप्त हो गए थे
फिर कुछ दिनों बाद वे ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और देवलोक में जो कुछ भी घटित हुआ था वो सब समाचार उन्हें कह सुनाया इंद्र की बात सुनकर ब्रह्मा जी ने उनसे कहा सब देवताओं को एकत्र करके हम सब लोग तुम्हारे साथ भगवान विष्णु की आराधना करने के लिए चलते हैं उसके बाद इंद्र सहित सभी लोकपाल ब्रह्मा जी के साथ छीर सागर गए वहां सबने भगवान विष्णु की स्तुति की फिर ब्रह्मा जी ने कहा प्रभु गुरु की अवहेलना करने के कारण इंद्र इस समय ऋषियों सहित स्वर्ग के राज्य से भ्रष्ट हो चुके हैं इसलिए इनका उद्धार कीजिए जिसके बाद विष्णु जी ने कहा हे देवगण गुरु की अवहेलना करने से सारा अभ्युदय नष्ट हो जाता है जो पापी है अधर्म में तत्पर है तथा केवल विषयों में रचे रहते हैं और जिनके द्वारा अपने माता-पिता की निंदा होती रहती है वे निसंदेह बड़े भाग्यहीन है ब्रह्मा इस इंद्र ने जो अन्याय किया है उसका फल इसे तत्काल प्राप्त हो गया केवल इंद्र के ही कर्म से ही संपूर्ण देवताओं पर संकट आया है जब किसी भी पुरुष के लिए विपरीत काल उपस्थित हो जाए तब उसे दूसरों का सहयोग प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिए बुद्धिमान पुरुष अपने संपूर्ण मनोरथ की सिद्धि के लिए अन्य प्राणियों के साथ मैत्री करते हैं अतः इंद्र तुम मेरी बात मानो इस समय अपना काम बनाने के लिए तुम्हें दैत्यों के साथ मेलजोल कर लेना चाहिए अमरावती छोड़कर देव देवताओं के साथ सुतल लोक अर्थात पाताल लोक में चले गए उधर जब राजा बली को पता चला कि इंद्र पाताल लोक आए हैं तो उसने अपनी सेना के साथ इंद्र को मार डालने का विचार बनाया उस समय देवर्ष नारद ने बलवान में श्रेष्ठ राजा बली और दैत्यों को समझाकर उन्हें इंद्र के वध से रोका देवर्ष के ही कहने से राजा बली ने इंद्र के प्रति अपना रोष त्याग दिया था इतने में ही इंद्र भी अपनी सेना के साथ आ पहुंचे राजा बली ने देखा लोक पालोंबा अब उनमें प्रभुता का मत नहीं रह गया है उनका तेज चला गया है
और अब वे ईर्ष्या तथा अहंकार से रहित हो गए हैं उन्हें इस अवस्था में देखकर राजा बली के मन में बड़ी दया आती है वह हंसते हुए बोले देवराज इद्र आप इस सुतल लोक में कैसे पधारे यहां आने का कारण बताइए बलि की यह बात सुनकर इंद्र मुस्कुराते हुए बोलते हैं हे बलि हम सब देवता क्रोध के अधीन हो रहे हैं आप सब लोगों की भी यही दशा है जैसे हम हैं वैसे ही आप लोग भी हैं अतः हम हमारा यह कलह निरर्थक है भाग्य वश आपने मेरा संपूर्ण राज्य एक क्षण में ही ले लिया तथा बहुत से रत्न भी स्वर्ग से यहां पर उठा लाए परंतु वे सभी रत्न तत्काल ही जहां के थे वहीं चले गए अतः विद्वान पुरुष को एक दूसरे से मिलकर कर्तव्य के विषय में विचार करना चाहिए विचार करने से ज्ञान होता है और ज्ञान होने पर संकट से छुटकारा अवश्य मिल जाएगा इस समय तो मैं संपूर्ण देवताओं के साथ आपके समीप त्राण पाने के लिए आया हूं अब इंद्र की बात समाप्त होने पर देव नारद ने राजा बली को समझाते हुए कहा दैत्य राज शरण में आए हुए प्राणी की रक्षा करना महापुरुषों का धर्म है जो लोग ब्राह्मण रोगी वृद्ध तथा शरणागत की रक्षा नहीं करते वे ब्रह्म हत्यारे हैं इंद्र इस समय शरणागत के रूप में तुम्हारे समीप आए हैं अतः इनकी भली भाति रक्षण और पोषण करना तुम्हारा परम कर्तव्य है देवर्ष नारद के मुख से ऐसी बातें सुनकर राजा बली उस पर गहन विचार करने लगे फिर कुछ क्षण पश्चात लोक पालोंबा सम्मान के साथ स्वागत सत्कार किया तथा उनके मन में विश्वास उत्पन्न करने के लिए अनेक प्रकार की सभी शपथ भी खाई इंद्र ने भी राजा बलि को विश्वास दिलाने वाली शपथ खाई देवराज इंद्र स्वार्थ साधन में तत्पर रहते हैं
और अर्थशास्त्र में ही उनके विशेष प्रवृत्ति है उन्होंने शपथ खाकर राजा बलि के साथ सुतल लोक में ही निवास किया वहां देवराज इद्र को रहते हुए उन्हें अनेक वर्ष व्यतीत हो गए तब एक दिन बलि की भी सभा में बैठे हुए निति निपुण देवराज इंद्र ने बली से हंसते हुए कहा वीरवर हमारे हाथी घोड़े आदि नाना प्रकार के बहुत से रत्न जो तुम्हें इस समय प्राप्त होने योग्य हैं तत्काल ही समुद्र में समा गए हम लोगों को समुद्र से उन रत्नों का उद्धार करने के लिए बहुत जल्द प्रयत्न करना चाहिए तुम्हारे कार्य सिद्धि के लिए समुद्र का मंथन करना उचित होगा अब इंद्र के इस प्रकार प्रेरणा देने पर बलि ने शीघ्रता पूर्वक पूछा यह समुद्र मंथन किस उपाय से संभव हो पाएगा उसी समय मेघ से आकाशवाणी हुई देवताओं और दैत्यों तुम शीर समुंद्र का म मंथन करो इस कार्य से तुम्हारे बल की वृद्धि होगी मंदराचल पर्वत को मथानी और वासों की नाग को रस्सी बनाओ फिर देवता और दैत्य मिलकर मंथन आरंभ करो अब ये आकाशवाणी सुनकर मित्रों सहस्त्र दैत्य और देवता समुद्र मंथन के लिए मंदराचल पर्वत के पास गए वह पर्वत सीधा गोलाकार बहुत मोटा और अत्यंत प्रकाशमान था अनेक प्रकार के रत्न उसकी शोभा बढ़ा रहे थे
चंदन पारी जात जायफल और चंपा आदि भाती भाती के वृक्षों से यह भरा दिखाई देता था उस महान पर्वत को देखकर संपूर्ण देवताओं ने हाथ जोड़कर कहा दूसरों का उपकार करने वाले महाशक्तिशाली मंदराचल हम सब देवता तुमसे कुछ निवेदन करने के लिए आए हैं उसे तुम सुनो उनके यह कहने पर मंदराचल देह दारी पुरुष के रूप में प्रकट होकर कहते हैं देवक आप सब लोग मेरे पास किस कार्य से आए हैं उसे बताइए तब देवराज इद्र ने मधुर वाणी में कहा मंदराचल तुम हमारे साथ रहकर एक कार्य में सहायक बनो हम समुद्र को मत कर उससे अमृत निकालना चाह ते हैं इस कार्य के लिए तुम मथानी बन जाओ मंदराचल ने बहुत अच्छा कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और देव कार्य की सिद्धि के लिए देवताओं दैत्यों तथा विशेषतः इंद्र से कहा पुण्यात्मा देवराज आपने अपने वज्र से मेरे दोनों पंख काट डाले हैं फिर आप लोगों के कार्य की सिद्धि के लिए छीर समुद्र तक मैं चल कैसे सकता हूं तब सभी देवताओं दैत्यों ने उस अनुपम पर्वत को समुद्र तक ले जाने की इच्छा से उखाड़ लिया परंतु वे उसे धारण करने में समर्थ ना हो सके वह महान पर्वत उसी समय देवताओं और दैत्यों के ऊपर गिर पड़ा कोई कुचले गए कोई मर गए कोई मूर्छित हो गए कोई एक दूसरे को कोसने और चिल्लाने लगे तथा उन लोगों ने बड़े कलेश का अनुभव कर दिया इस प्रकार उनका उधम और उल्लास भंग हो जाता है
वे देवता और दानव सचेत होने पर जगदीश्वर भगवान विष्णु की स्तुति करने लगते हैं देवताओं की स्तुति सुनकर तत्काल भगवान विष्णु अपने वाहन गरुड़ के पीठ पर सवार होकर सहसा वहां पर पहुंच गए फिर भगवान विष्णु ने खेल-खेल में उस महान पर्वत को उठाकर गरुड़ के पीठ पर रख दिया फिर वे देवताओं और दैत्यों को छीर समुद्र के उत्तरी तट पर ले गए और पर्वत श्रेष्ठ मंदराचल को समुद्र में डालकर तुरंत वहां से चल दिए तद सब देवता दैत्यों के साथ लेकर वासु की नाग के पास गए और उनसे भी अपने प्रार्थना स्वीकार कराई इस प्रकार मंदराचल को मथानी और नाग वासिक को रस्सी बनाकर देवताओं और दैत्यों ने छीर समुद्र का मंथन आरंभ कर दिया इतने में ही वह पर्वत समुद्र में डूबकर रसातल को जा पहुंचा तब लक्ष पति भगवान विष्णु ने कच्छ रूप धारण करके तत्काल ही मंदराचल को ऊपर उठा लिया उस समय एक अद्भुत घटना हुई फिर जब देवता और दैत्यों ने मथानी को घुमाना आरंभ किया तब वह पर्वत बिना गुरु के ज्ञान के भांति कोई सुदृढ आधार ना होने के कारण इधर-उधर डोलने लगा यह देख परमात्मा भगवान विष्णु स्वयं ही मंदराचल के आधार बन गए और उन्होंने अपनी चारों भुजाओं से मथानी बने हुए उस पर्वत को भली भाति पकड़कर उसे सुख पूर्वक घूमने योग्य बना दिया तब अत्यंत बलवान देवता और दैत्य एक ही भूत हो अधिक जोर लगाकर छीर समुद्र का मंथन करने लगते हैं कछ रूप धारी भगवान की पीठ जन्म से ही कठोर थी और उस पर घूमने वाला पर्वत श्रेष्ठ मंदराचल भी वज्र की भांति दृढ़ता उन दोनों की रगड़ से समुंद्र में बड़वानल प्रकट हो गया साथ ही हलाहल विष उत्पन्न हुआ उस विष को सबसे पहले देवर्ष नारद जी ने देखा तब नारद जी ने देवताओं को पुकार कर कहा हे
अदिति कुमारों तब तुम समुद्र मंथन ना करो इस समय संपूर्ण उपद्रव का नाश करने वाले भगवान शिव की प्रार्थना करो लेकिन देवता अपने स्वार्थ साधन में संलग्न हो समुद्र मत रहे थे वे अपनी ही अभिलाषा में तन्मय होने के कारण नारद जी की बात नहीं सुन सके केवल उधम का भरोसा करके वे छीट सागर के मंथन में संलग्न थे अधिक मंतन से जो हलाहल विष प्रकट हुआ वह तीनों लोगों को भस्म कर देने वाला था वह प्रौढ़ विष देवताओं का प्राण लेने के लिए उनके समीप आ पहुंचा और ऊपर नीचे तथा संपूर्ण दिशाओं में फैल गया समस्त प्राणियों को अपना ग्रास बनाने के लिए प्रकट हुए उस कालकूट विष को देखकर वे सब देवता और दैत्य हाथ में पकड़े हुए नागराज वासुकी को मंदराचल पर्वत सहित वहीं छोड़ भाग खड़े हुए फिर सभी देवताओं और दैत्य भगवान शिव की स्तुति करने लगे फिर कुछ देर बाद भगवान शिव वहां पर प्रकट होते हैं
तब सभी देवताओं और दैत्यों ने उन्हें हलाहल विष को धारण करने की विनती की फिर उस लोक सरकारी कालकूट विष को भगवान शिव ने स्वयं अपना ग्रास बना लिया उन्होंने उस विष को निर्मल कर दिया इस प्रकार भगवान शिव की कृपा होने से देवता असुर मनुष्य तथा संपूर्ण त्रिलोकी की उस समय कालकूट विष से रक्षा हुई तदनंतर भगवान विष्णु के समीप मंदराचल को मथानी और वासु की नाग को रस्सी बनाकर देवताओं ने पुनः समुद्र मंथन आरंभ कर दिया तब समुद्र से देव कार्य की सिद्धि के लिए अमृतम कलाओं से परिपूर्ण चंद्रदेव प्रकट होते हैं संपूर्ण देवता असुर और दानवों ने भगवान चंद्रमा को प्रणाम किया और गर्गाचार्य जी से अपने-अपने चंद्र बल के बारे में पूछा उस समय गर्गाचार्य जी ने देवताओं से कहा इस समय तुम सब लोगों का बल ठीक है तुम्हारे सभी उत्तम ग्रह केंद्र स्थान में है चंद्रमा से गुरु का योग हुआ है तुम्हारे कार्य की सिद्धि के निमित्त इस समय चंद्र बल बहुत उत्तम है यह गोमंतक महूरत है जो विजय प्रदान करने वाला है अब मित्रों महात्मा गर्गाचार्य जी के इस प्रकार आश्वासन देने पर महाबली देवता गर्जना करते हुए बड़े वेग से समुद्र मंथन करने लगते हैं
मथे जाते हुए समुद्र के चारों ओर बड़े ज्वर की आवाज उठ रही थी इस बार के मंथन से देव कायो की सिद्धि के लिए साक्षात सुरभी अर्थात कामधेनु गाय प्रकट हुई उन्हें काले श्वेत पीले हरे तथा लाल रंग की सैकड़ों गाय घेरी हुई थी उस समय ऋषियों ने बड़े हर्ष में भरकर देवताओं और दैत्यों से कामधेनु के लिए याचना की और कहा कि आप सब लोग मिलकर भिन्न-भिन्न गोत्र वाले ब्राह्मणों को कामधेनु सहित इन सभी गायों का दान अवश्य करें अब ऋषियों की याचना करने पर देवताओं और दैत्यों ने भगवान शंकर की प्रसन्नता के लिए वे सब गं दान कर दी तथा यज्ञ क्रम में भली भाति मन को लगाने वाले उन परम मंगलमय महात्मा ऋषियों ने उन गायों का दान स्वीकार किया तत्पश्चात फिर सभी लोग बखीरता अगर को मथने लगे तब समुद्र से कल्प वृक्ष पारिजात चूर और संतान यह चार दिव्य वृक्ष प्रकट हुए उन सबको एकत्र रखकर देवताओं ने पुनः बड़े वेग से समुद्र मंथन आरंभ कर दिया इस बार मंथन से रत्नों में सबसे उत्तम रत्न कौस्तुभ मणि प्रकट हुआ जो सूर्य मंडल के समान परम कांति मान था वह अपने प्रकाश से तीनों लोगों को प्रकाश कर रहा था
फिर कौस्तुभ मणि को रखकर देवताओं और दैत्यों ने पुनः समुंद्र को मंथन आरंभ कर दिया वे सभी बल में पढ़े चढ़े थे और बार-बार गर्जना कर रहे थे अबकी बार उसे मथे जाते हुए समुद्र से उच्च शरवा नामक अश्व प्रकट हुआ वह समस्त अश्व जाति में एक अद्भुत रत्न था उसके बाद गज जाति में रत्न भू रावत प्रकट हुआ उसके साथ ही श्वेत वर्ण के 64 हाथी और थे इरावत के चार दांत बाहर निकले हुए थे और मस्तक से मधु की धारा बह रही थी इन सब को भी मध्य में स्थापित करके वे सब पुनः समुद्र मंधने लगे उस समय उस समुद्र से मतीरा भांग लहसुन काजर अत्यधिक उन्माद कारक धतूर तथा पुष्कर आदि बहुत सी वस्तुएं प्रकट हुई इन सबको भी समुद्र के किनारे एक स्थान पर रख दिया गया तत्पश्चात वे श्रेष्ठ देवता और दानव पुनः पहले की ही भांति समुद्र मंथन करने लगे अबकी बार समुद्र से संपूर्ण भवनों का एकमात्र अधिश्वर दिव्य रूपा देवी महालक्ष्मी प्रकट हुई फिर देवताओं ने देखा देवी महालक्ष्मी का रूप परम सुंदर है उनके मनोहर मुख पर स्वाभाविक प्रसन्नता विराजमान है हार और नुपुर से उनके भी अंग की बड़ी शोभा हो रही है
मस्तक पर छत्र तना हुआ है दोनों ओर से चवन डुल रहे हैं जैसे माता अपने पुत्रों की ओर स्नेह और दुल भरी दृष्टि से देखती है उसी प्रकार सती महालक्ष्मी ने देवता दानव सिद्ध चारण और नाग आदि संपूर्ण प्राणियों की ओर दृष्टिपात किया माता महालक्ष्मी की कृपा दृष्टि पाकर सभी देवता उसी समय श्री संपन्न दिख दिखाई देने लगे तद नांतर देवी लक्ष्मी ने भगवान मुकुंद की ओर देखा उनके श्री अंग तमाल के समान श्याम वर्ण थे कपोल और नासिक बड़ी सुंदर थी वे परम मनोहर दिव्य शरीर से प्रकाशित हो रहे थे उनके वक्ष स्थल में श्रीवत्स का चिन्ह सुशोभित था भगवान के एक हाथ में कुमोद की गदा शोभा पा रही थी भगवान नारायण की उस दिव्य शोभा को देखते ही लक्ष्मी जी आश्रय चकित हो उठी और हाथ में वर्णमाला से सहसा हाथी से उतर पड़ी वो माला श्री जी ने अपने हाथों से बनाई थी उसके ऊपर भ्रमर मंडरा रहे थे देवी ने वह सुंदर वनमाला परम पुरुष भगवान विष्णु के कंठ में पहना दी और स्वयं उनके वम भाग में जाकर खड़ी हो गई उस शोभा शैली दंपति का वहां दर्शन करके संपूर्ण देवता दैत्य सिद्ध अप्सराएं किन्नर तथा चरण गण परम आनंद को प्राप्त हुए तो मित्रों समुद्र मंथन की आज की कथा में बस इतना ही फिर आपको समुद्र मंथन की यह कथा कैसी लगी नीचे कमेंट करके अवश्य बताएं
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