Shiv ji

शिव भक्ति सबको प्राप्त क्यों ? नहीं होती ||

 यही शीर्षक है नोचे जातस्य वै फल्य काश हानि रिति परा अर्थात जीवन की विफलता से बड़ी और क्या हानि होगी दुर्लभ मनुष्य तन पा कर के भी हम उसकी महत्ता को वास्तविकता में समझ नहीं पाते हैं और अपने आप को नाना प्रकार

के छल प्रपंच में उलझा रखते हैं इस कारण से ही यह अमूल्य मनुष्य तन और इस मनुष्य तन को प्राप्त हुआ जो निर्धारित समय है बहुत द्रुत गति से वह व्यतीत हो जाता है

Aghori ji Rajasthan


तो फल स्वरूप हम जिस चक्र में फसे थे और जिस चक्र से विमुक्त होने के लिए हमें मनुष्य तन मिला था वह सब का सब व्यर्थ हो जाता है व मात्र इसलिए क्योंकि हमने स्वयं को कर्ता भोगता मान कर के व्यर्थ के आडंबर में स्वयं को उलझा दिया पहले कर्म किया फिर उस कर्म में कर्ता भाव जागृत हुआ तो फिर उससे जो उत्पन्न फल हुआ व भी तो आपसे ही लिपटा हुआ रहेगा जब कर्म आपने कर्ता भाव से किया तो फल भी तो आपको ही भुगतना होगा इसीलिए तो तमाम शास्त्रों ने बार-बार मुक्त कंठ से इस बात को कहा है


कि मनुष्य को भरसक प्रयास करना चाहिए अपने कर्ता भोक्ता भाव को मिटाने के लिए कर्ता भोक्ता भाव ही सभी समस्याओं का जड़ है इसीलिए कहा भी गया है मनुष्य जन्म साफल्यम् केवलम धर्म साधन मतलब धर्म को ना जान कर के ही मनुष्य दुखी होता है और धर्म का सेवन करने से ही मनुष्य जन्म सफल होता है ऐसा नहीं है कि यह बात आपको पहली बार बताई जा रही है सभी मनुष्यों को यह बात पता है कि मनुष्य तन बहुत महत्त्वपूर्ण है अत्यंत दुर्लभ लक्ष्य भी इस मनुष्य तन से प्राप्त किया जा सकता है और मनुष्य मात्र को ही मुक्ति का भी अधिकार दिया गया है ऐसा भी किसी शास्त्र में कहीं नहीं कहा गया कि अमुक व्यक्ति को मुक्ति मिलेगी अमुक को नहीं मिलेगी ना ही महिला पुरुष में कोई भेद किया गया है ना ही जाति वर्ण का कोई भेद है


मुक्ति प्राप्त करने के लिए तो मात्र मनुष्य होना ही आवश्यक है इसके अतिरिक्त और किसी योग्यता की आवश्यकता नहीं है किसी विशेष योग्यता की आवश्यकता ना होने के बावजूद भी लोग ईश्वर के पथ पे क्यों अग्रसर नहीं होते हैं क्यों दृढ़ता से धर्म के मार्ग पर टिके नहीं रह पाते हैं ऐसा क्या हो जाता है कि कुछ दिन भक्ति करने के बाद धीरे-धीरे लोगों में अश्राथा को प्रकट करें अथवा ना करें लेकिन आंतरिक दृष्टि से देखिए तो अधिकांश लोग ऐसे ही होते हैं जो बहुत उत्साह से भक्ति मार्ग पर चलना प्रारंभ करते हैं लेकिन कुछ ही दिनों बाद उनका जोश ठंडा हो जाता है भले वह बाहर इसका प्रदर्शन ना करें अपनी अश्राथा ह क्षीण हो चुका रहता है और कहीं यदि आपकी पूजा पाठ साधना उपासना का उद्देश्य भगवत प्राप्ति है फिर तो आपका विरोध चहर से होगा सभी दिशाओं से आपका विरोध होगा और उस पर से भी आप यदि शिव भक्ति की ओर बढ़ रहे हैं


भगवान शिव से आप प्रेम करते हैं और उन्हें प्राप्त करना चाहते हैं तो कौन-कौन लोग आपके मार्ग में व्यवधान डालते हैं इसका विधिवत वर्णन शिव गीता में किया गया है तो आइए जानते हैं कि शिव गीता के प्रथम अध्याय में ही सूत जी क्या कह रहे सनत कुमार प्रोवा व्यासा मुनि सत्तम महिम कृपा तिरे केना प्रद दौ बाद रायण सूत जी कहते हैं कि मुनि श्रेष्ठ सनत कुमार जी ने यह शिव गीता व्यास जी से कही थी फिर व्यास जी ने कृपा करके मुझसे कही उतम चते न कस्मत वि दम तया सूत पुत्रा अन्यथा देवा शभ च शपत च अर्थात सूत जी को जब व्यास जी शिव गीता का ज्ञान दे रहे थे


तो कहा भी कि तुम इस गीता को किसी को मत देना हे सूत पुत्र ऐसा वचन पालन यदि तुम नहीं करोगे तो

देवता आदि शोभित होकर आपको शाप देंगे मतलब यह कहा जा रहा है सूत जी से मुनि व्यास जी के द्वारा जो यह शिव गीता का ज्ञान मैं तुम्हें प्रदान कर रहा हूं इसको अपने तक ही रखना यदि इसको प्रकाशित करोगे तो इसके प्रचार प्रसार से देवता नाराज हो जाते हैं क्योंकि देवता नहीं चाहते कि शिव की भक्ति में आप संलग्न हो यह मेरे वचन नहीं है यह शिव गीता का श्लोक है इस पर ध्यान दीजिए अथ पुटो मया विप्रा भगवान बारायण भगवन देवता सर्वा किम शुभं सपंचाैधरीसोंग [संगीत] [संगीत] वता पारा शर तमामा यत पृम शव सत देवताओं की इसमें क्या हानि है उनका क्या नुकसान है


जो वे देवता शिव जी की गीता का प्रचार प्रसार करने पर क्रोध करेंगे यह सुनकर व्यास जी मुझसे बोले हे वत्स तू अपने प्रश्न का उत्तर सुन नित्या हो त्रण विप्रा संती ये ग्रह में दिनव सर्व फलदा सुराणाम कामधेनू या जो भक्तगण नित्य अग्निहोत्र आदि करते हैं और गृहस्थ आश्रम में रहते हैं उसके विधि विधान का पालन करते हैं वही सब फलों के देने वाले देवताओं के लिए काम धेनु हैं यानी देवता उन लोगों से बड़ा प्रीति करते हैं जो नित्य अग्निहोत्र कर्म करते हैं गृहस्थ धर्म के सभी नियम आदि का पालन करते हैं समय-समय पर विभिन्न देवी देवताओं को भोग आदि देते रहते हैं ऐसे लोगों को ही देवता जन कामधेनु के समान उपयोगी समझते हैं आगे वर्णन है भक्ष भोज्य चपेय च यद दिष्ट सुपर्म अग्न तेन हविशा तत सर्वम लभते दिवी अर्थात भक्ष भोज्य पान करने योग्य जो कुछ पर्वों में यज्ञ किया जाता है


यानी जो भी भोज्य पदार्थ देवताओं को यज्ञ आदि रूप में दिया जाता है सो भवन की अग्नि में जो आहुति आदि दी जाती है वह सब स्वर्ग में प्राप्त होती है देवताओं को नान्य दस्ती सुरे शना मिष्ट सिद्धि प्रदम दिवी दोधी धनुर यथा नीता दुखदा ग्रहमे धि नाम अर्थात देवताओं को स्वर्ग में इष्ट सिद्धि देने वाला और कुछ नहीं है जैसे कोई गृहस्थ व्यक्ति है उसकी दुधारू गाय कोई चुरा ले जाए तो उसे कैसा दुख होता है तो वैसा ही दुख देवताओं को होता है जब वह उनकी प्रीति उनकी प्रसन्नता के लिए कार्य ना करके किसी अन्य देवी देवताओं को भजने लगते हैं थवम ज्ञानवान देवा नाम दुखद भवे त्रि दशा स्तेमिल्ट कर्मकांड आदि में लिप्त नहीं होता इस कारण से ही देवी देवता उसकी पत्नी पुत्र आदि में प्रवेश करके उसका विरोध करवाते हैं


अब आगे बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही गई है ततो न जायते भक्ति शिवे कश्या पदे हिन तस्मा विदु शम नव जायते शूल पाणिना अर्थात इसी कारण से किसी देह धारी की किसी शरीर की शिव में भक्ति नहीं हो पाती और इसी कारण मूर्खों को शिव का प्रसाद नहीं मिलता मूर्खों से यहां यह मतलब है कि वैसे व्यक्ति जो विभिन्न प्रकार के विरोध और अवरोधों के डर से अपना उत्साह खो बैठते हैं और शिव भक्ति को त्याग देते हैं तो ऐसे लोगों को शिव का प्रसाद उनकी कृपा नहीं मिल पाती है यथा कथम चित जाता प मध विद्यते निरम जातं वापी शिव ज्ञानम ना विश्वासम भज चलम अर्थात जो कोई थोड़ा कुछ शिव जी के विषय में जानना चाह चाहता भी है तो वह किसी कारण मध्य में ही उस मार्ग को छोड़ जाता है और अगर किसी को थोड़ा बहुत ज्ञान हो भी गया तो वह पूर्ण विश्वास नहीं कर पाता है


सूत जी की यह बातें सुनने के बाद समस्त ऋषि गण क्या बोलते हैं यद देवम देवता विघ्न मा चरती तनु भता पौरुष तत्र करस स्ती येन मुक्त भविष्यति सभी ऋषि बोले जब इस प्रकार से देवता ही शरीर धारियों का मनुष्यों का विघ्न करते हैं विरोध करते हैं तो फिर किसमें इतना शक्ति और पराक्रम है कि उनसे टक्कर लेकर मुक्ति को प्राप्त कर लेगा मतलब इंद्रादीप उतारू हो जाए तो भला उसका क्या सामर्थ्य है कि वह जीवन मुक्ति की ओर बढ़ सकेगा इंद्रादीप से मुक्त हो क्योंकि आप तो उनके लिए एक दुधारू गाय के समान है


जो आप हवन आदि कर्म करते हैं तो उसी के धूम्र का पान तो ही दे देवता करते हैं और आप अगर भगवत प्राप्ति की मार्ग में आगे बढ़ गए तो भला इन देवी देवताओं को कौन तुष्ट करेगा कौन संतुष्ट करेगा यही कारण है कि वह आपका विभिन्न प्रकार से विरोध कराते हैं और उन उन माध्यमों से विरोध कराते हैं कि आपकी रूह कांप जाएगी आपके पिता आपका विरोध करने लग जाएंगे आपकी माता आपके भाई बंधु आपके पुत्र आपकी संताने आपके रिश्तेदार आपके मित्र यह मैं नहीं कह रहा हूं जैसा शिव गीता का वर्णन है उस आधार पर मैं बता रहा हूं वही प्रश्न यहां सूत जी से ऋषि गण कर

रहे हैं


कि जब देवता ही हमारा विरोध करने लगेंगे तो भला किसकी सामर्थ्य है कि उनसे पार पा सकेगा तब सूत जी इसके उत्तर में बोलते हैं कोटि जन्मा अर्जित हे पुण्य शिवे भक्ति प्रजाय अर्थात सूत जी बोले करोड़ों जन्मों के संचित पुण्य जब उदय होते हैं तो शिवजी में भक्ति उत्पन्न होती है टा पूता अधिक माण तेना चरती मानव शिवा अर्पण धिया कामां परित्यज्य यथा विधि अर्थात उस भक्ति के उत्पन्न होने पर इष्ट पूर्त आदि कर्मों की कामना को छोड़कर यानी मनोकामना की पूर्ति यह देवता की पूजा वह देवता की पूजा इन सब छल प्रपंच को व छोड़ देता है ऐसा मनुष्य शिव जीी में अर्पण बुद्धि से यथा विधि कर्म करता है अर्पण बुद्धि मतलब शिव जी इस जगत के स्वामी हैं मैं उनका बेमोल का गुलाम हूं दास हूं मैं जो कुछ कर रहा हूं उनकी प्रसन्नता के लिए कर रहा हूं लाभ होगा तो मेरा मालिक जाने नुकसान होगा तो मेरा मालिक जाने शिवार्पनम अपने अस्तित्व का समामेलन नहीं किया जाता है अपने लाभ हानि की चिंता को छोड़कर जो शिव जी की भक्ति के पथ पर आगे बढ़ता है उसे ही शिवा अर्पण बुद्धि से युक्त समझना चाहिए अब आगे का सबसे महत्त्वपूर्ण श्लोक देखिए अनुग्रहा तेन संभोर जायते सुद्रो नर ततो भीत पलायन विघ्न त्वा सुरेश्वरी की कृपा से जब यह प्राणी यानी

वह भक्त जिसकी भक्ति का उदय हुआ है


वह दृढ़ भक्ति मान हो जाता है तब विघ्न बाधाएं ये सब कुछ छोड़ कर के [संगीत] इंद्रादीप चंद्र माउली न शव तो जायते ज्ञानम ज्ञाना देव विमु चते अर्थात उस भक्ति के करने से शिव जी के चरित्र श्रमण करने की अभिलाषा उत्पन्न होती है शिव जी के विभिन्न कथा चरित्रों आदि के श्रवण की इच्छा अभिलाषा उत्पन्न हो जाती है फिर उसके सुनने उसके मनन करने से जो ज्ञान की प्राप्ति होती है तो उसी ज्ञान से उस व्यक्ति की मुक्ति हो जाती है बहु नात कि मुक्ते ना यस्य भक्ति शिवे दा महापाप पाप घ कोटि ग्रस्तों ले कि जिसकी शिवजी में दृढ़

भक्ति हो गई वह करोड़ों पापों से भी ग्रस हुआ हो तो भी आसानी से सरलता से मुक्त हो जाता है


तो शिव गीता के इस प्रसंग से हमें क्या समझने को मिला यही कि शिव भक्ति उसी को प्राप्त होती है जो समस्त आशाओं और भरोसो का त्याग करके एक महादेव जी के चरणों में ही विश्वास रखता है जिनकी बुद्धि शाखाओं वाली है यह ध्यान रखिएगा जो बैलेंस बना कर के चलने वाले लोग हैं थोड़ा सा भोग भी थोड़ा सा योग भी जो धन को बहुत महत्व देते हैं जो बाहरी दिखावा आडंबर आदि करते हैं शिव भक्ति उनको प्राप्त भी कैसे हो सकती है तो पूरे वीडियो का मूल निचोड़ यही है


कि दृढ़ इच्छा शक्ति ही और करोड़ों जन्म के जो हमारे पुण्य उदय होते हैं उसके फल स्वरूप ही दृढ़ शिव भक्ति प्राप्त होती है इसीलिए मैं पहले भी कई वीडियोस में यह आपको बता चुका हूं कि शिवजी को प्राप्त करने का मूल मंत्र यही है कि शिव जी से प्रेम हो जाए क्योंकि वही एक ऐसी स्थिति है जहां आप हर प्रकार की विघ्न बाधाओं पर विजय प्राप्त कर लेंगे और इंद्रादेव तोओका प्रकाश आपके भीतर प्रस्फुटित होगा तो इंद्रादेव औरंध ही भगवान महादेव की एक रचना है


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2 thoughts on “शिव भक्ति सबको प्राप्त क्यों ? नहीं होती ||

  1. Krishan Kumar Saini

    Krishan Saini

    1. Aghoriji Rajasthan

      JAY MAA KALI

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