
भगवान श्री कृष्ण के इन 22 वचनो में छिपा है पूरे जीवन का रहस्य |
कि कोई भी प्राणी एक पल भी कर्म के बिना नहीं रह सकता संभव नहीं हम और आपके बिना एक पल भी अपने जीवन को आगे बढ़ा सके हां यह जरूर है कि कुछ लोग दिखाई के लिए झूठे-मूठे कर्म करते रहते हैं परंतु वह यह नहीं जानते कि वह तब भी कम कर रहे होते हैं गीता के अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य के कर्म से संबंधित इसलिए उस अध्याय का नाम कर्म योग बताया गया कि भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता के इस नए एपिसोड में तब पर स्वागत अधिक तब अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा कि आपको क्या लगता है तो फिर मुझे अर्थात अपनों को नियुक्त करने की बातें सुनकर मेरा मन हो रहा है परंतु कुछ अपनी पा रहा हूं मेरी यूजर नेम और बढ़ती जा रही है तो यह सिर्फ अर्जुन के साथ नहीं हो रहा है कि ऐसी परिस्थिति में हर मनुष्य के साथ किसी समस्या का समाधान खोजने किसी के पास जाते हैं तो उसकी बातें सुनकर हमें यह एहसास होता है यह जो उससे समस्या सुलझने के बजाय और उलझ कहते हैं कि मुझे प्रभजीत को दूर ताकि मैं किसी पर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस दुनिया में दो प्रकार की जिसमें का संबंध और दूसरा है जो केवल कर्म के बारे में कुछ भी करने की अपनी इंद्रियों को वश में कर परमात्मा का ध्यान लगाना इसे संन्यासियों के नाम से जाना जाता है और मतलब निष्काम कर्म करो फल की आसक्ति न थी तो फिर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं यह रन मनुष्य ना तो कर्मों को आरंभ किए बिना निष्कर्मता को अर्थात योगनिष्ठ को प्राप्त कर सकता है

और न ही कर्मों को छोड़ देने से सा खून लिस्ट को प्राप्त कर सकता है मित्रों यदि आप नहीं करते हैं और कुछ समय ऐसी कहते हैं तो यदि आपको लगता है कि आपको मोक्ष मिल जाएगा तो आप गलत है क्योंकि उन्हें करने से या उसको हमेशा के लिए त्याग देने से कुछ भी हासिल नहीं होता ऐसा संभव नहीं कि कोई भी मनुष्य किसी कालखंड में कर्म किए बिना न रह सके बड़ी आपकी इच्छा हो या न हो आप कोई कर नहीं कर रहे होते तब भी आप अपना कर्म ही कर रहे होते क्योंकि प्रति में जितनी भी वस्तुएं हैं वह सभी चलायमान है अर्थात वह कभी नहीं रुकती हैं आप ले रहे होते हैं तब भी आप अपना कर्म ही कर रहे होते हैं समय चलता रहता है
इसलिए जब तक जीवन है तब तक आपको कर्म करना ही पड़ेगा इसीलिए यह आवश्यक है कर्म को समझा जाए और समझ कर उसको किया जाए भगवान क्वेश्चन आगे कहते हैं कि जो मनुष्य के लिए काम करता है और अपनी इंद्रियों को जबरदस्ती वश में करता है लेकिन हमेशा उसी के बारे में सोचता रहता है ऐसा मनुष्य कहलाता है उदाहरण के लिए यदि किसी मनुष्य खाना खाने के लिए पूछते हैं और अपनी इंद्रियों को संयम में रखकर खाने से मना कर देता है इसके बारे में ही सोच रहा होता है तो ऐसा ही मनुष्य कहा जाता है आपको कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि उन्होंने लेकिन अगर वह दुनियां के बारे में सोचते हैं तो कृष्ण के अनुसार ऐसे लोग मिथ्याचारी अर्थात झूठे इसके बाद श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं
कि जो मनुष्य के द्वारा इंद्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता और बिना किसी आ सकती के कर्मियों का शोषण करता है इसलिए उसे अपना कर्तव्य कर्म करो क्योंकि करने की कर्म करना श्रेष्ठ करने से तो तेरे जीवन यात्रा में सफल नहीं हो सकती हे पार्थ यज्ञ की निर्मित किए जाने वाले कर्मों से ही मनुष्य कर्मों से बढ़ता है इसलिए हे अर्जुन तुम आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भली भांति अपना कर्म करो जैसे प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि के आरंभ में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग किसी व्यक्ति द्वारा वृद्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित वर प्रदान करने वाला हो तुम लोग इसलिए द्वारा देवताओं को उन्नत करो और देवता तुम लोगों को उन्नत करें इस प्रकार निस्वार्थ भाव से एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे यदि द्वारा देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही इच्छित वर देते रहेंगे इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए लोगों को जो पुरुष उनके बिना दिए स्वयं रोकता है वह चोर ही है
या से बचे हुए अन्न खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिए अन्न पकाते हैं वह तो पाप खाते हैं जैसा सभी प्राणियों अमित से उत्पन्न होते हैं अन्य की उत्पत्ति दृष्टि से होती है वृष्टि यज्ञ से होती है और यह गैदर कर्मों से उत्पन्न होता है कर्म समुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान इससे सिद्ध होता है क्योंकि परमात्मा सदा ही योग में प्रतिष्ठित है इसलिए यह बात जो पुरुष इस लोक में अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता वह इंद्रियों द्वारा भिगो में रमण करने वाला पापा युगपुरुष व्यर्थ ही जाता है परंतु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही ट्रक तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो उसके लिए कोई कर्त्तव्य नहीं इसके बाद संजय दत्त राष्ट्रीय कहते हैं कि नरेश लीलाधर कृष्ण राज कुमार अर्जुन से कह रहे हैं कि महापुरुष लोगों का इस विषय में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है
और ना ही कर्मों के ना करने से कोई प्रयोजन रहता है तथा ऐसे प्राणियों में किंचित् मात्र भी स्वार्थ का बंधन नहीं रहता इसलिए अर्जुन तुम निरंतर आसक्ति से रहित होकर अपना कर्तव्य कर्म को भली-भांति करते चलो क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है श्रेष्ठ पुरुष वरण करता है अन्य पुरुष भी वैसा वैसा ही आचरण करते हैं वह जो कुछ प्रमाण कर देता है समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार भारत ने लग जाता है इसलिए उन्हें नियुक्ति में ना कुछ करता है और कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु प्राप्त कर में करता हूं क्योंकि मैं करूंगा तो बड़ी हानि होगी क्योंकि wejit करते इसलिए मैं करूं तो यह मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएंगे इसलिए उठ कर इस समय नष्ट करने वाला बंद कर दिया इस प्रकार कर्म करते आसक्ति रहित विद्वान संग्रह करना चाहता हुआ था उसी प्रकार करें परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुए अपनी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्त तिवारी अज्ञानियों की बुद्धि में ब्रह्म अर्थात् कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करें किंतु स्वयं शास्त्र विहित समस्त कर्म भरी भारती करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाएं के धनंजय वास्तव में सभी कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं तो भी जिसका अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है ऐसे अज्ञानी मैं करता हूं ऐसा मानता है परंतु हे महाबाहो गुणों विभाग और कर्म विभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञान योग उसमें आसक्त नहीं होता प्रकृति के गुणों से अत्यंत मोहित मनुष्य करोड़ों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं उन्हें समझने वाले मंद बुद्दी अज्ञानियों को पूर्णतया जाने वाला ज्ञानी विचलित ना करें इसलिए मुझे अंतर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्र द्वारा संपूर्ण कर्मों को मुझे अर्पण करके आशा रहित ममतारहित और संताप रहित होकर युद्ध कर जो कोई मनुष्य दोस्त दृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस में का सदा अनुसरण करते हैं वे सभी संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं परंतु जो मनुष्य में दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं उन मूर्खों को तुम संपूर्ण गुणों में मोहित और नष्ट हुआ ही समझ लो सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करते हैं और ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है मनुष्य की सभी इंद्रियों में कोई ना कोई राग और द्वेष अवश्य छुपा हुआ है इसलिए मनुष्यों को उनके वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे मनुष्य के आगे बढ़ने के मार्ग में वृद्धि करने वाले सबसे बड़े शत्रु है अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भाई देने वाला है श्रीकृष्ण की यह बातें सुनकर ऑप्शन पहले एक ब्रश तो फिर यह मनुष्य स्वयं ना चाहता हूं
कि बलात लगाए हुए की भांति के से प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है और उनके इस सवाल का जवाब देते हुए भगवान कृष्ण ने कहा हे पार्थ रजोगुण से उत्पन्न हुआ आज हम ही क्रोध है यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कमीना लगाने वाला और बड़ा पापी है जिस प्रकार हुए से अग्नि और मैं इसे दर्पण रखा जाता है वैसे ही काम द्वारा ज्ञान थक जाता है और हेयर जेल इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानियों की नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान थका हुआ है इंद्रियां मन और बुद्धि यह सब इसके बाद स्थान है यह काम मन बुद्धि और इंद्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित कर के जीवात्मा को मोहित करता है इसलिए हे अर्जुन तुम पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान नष्ट करनेवाले महापापी काम को मार डालो क्योंकि इंद्रियों को स्थूल शरीर से पर यानि श्रेष्ठ बलवान और सूक्ष्म कहते हैं इंद्रियों से पर मन है मन से पर बुद्धि और जो बुद्धि से भी अत्यंत पर है वह आत्मा है इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सुख बलवान और अत्यंत श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में कर कि यह महाबाहु इस काम रूप दूजे शत्रु को मार डाल दो सौ गीता के तीसरे अध्याय अर्थात कर्म योग में श्री कृष्ण द्वारा बताई गई यह बातें अब तो आपको समझ आ ही गई होगी अगर समझ में आ गई तो नीचे कमेंट करके अवश्य गीता ज्ञान कर्म सन्यास योग के नाम से जाना जाता है गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं मनुष्य को चाहिए कि वह भी करें उसे भगवान अर्थात मेरे चरणों में अर्पित करें श्रीकृष्ण कहते हैं प्रथम मैंने यह कभी न ख़त्म होने वाला मैंने सूर्य देव सूर्य अपने पुत्र वैवस्वत मनु को और उसके बाद ने इस बारे में अपने पुत्र को इस प्रकार परंपराओं को राजस्व कि वह योग सब्सक्राइब और मेरे कि अपीयर्स रखा हो इसीलिए वही यह पुरातन योग मैंने तुमको कहा कि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय भगवान श्रीकृष्ण के मुख से ऐसे वचन सुनकर हैरान हो गए भगवान श्रीकृष्ण से आप तो अभी कुछ वर्ष पहले हुआ और सूर्य सृष्टि के आरंभ से ही विराजमान तो फिर मैं कैसे मान लूं कि आपने की अर्थात कभी न खत्म होने वाले इस योग के बारे में बताया था भगवान कृष्ण से ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उसकी आंखों पर इस समय यह जानता कि
भगवान श्रीकृष्ण किसी ना किसी रूप में सृष्टि के आरंभ से ही यहां पर है कि अब चूंकि इस प्रश्न से भगवान श्री कृष्ण मुस्कुराने लगते हैं और कहते हैं यह पार्थ मैं और तुम बहुत से चल ले चुके हैं परंतु उसके बारे में तुम्हें कुछ भी याद नहीं है कि मुझे सब कुछ गया था सृष्टि के आरंभ से ही ऐसा कोई शक नहीं है जिसमें हम और तुम नाउ हे अर्जुन मैं अजन्मा और अविनाशी हूं और समय-समय पर अपनी योगमाया से किसी ना किसी रूप में प्रकट होता हूं यह भारत जब-जब धर्म की हानि होने लगती है और अधर्म बढ़ने लगता है तब-तब हिंदू धर्म की स्थापना के लिए साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता अर्थात अधर्म पर धर्म होने लगता है तब साधु पुरुषों का उद्धार कि युक्त कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना कर नियुक्ति में प्रकट करता हूं है इसलिए हे अर्जुन मेरी सभी जन्म और कर्म निर्मल और अलौकिक है और जो मेरे जन्म के रहस्य को चार लेता है और ऐसा समझकर जो पुरुष अनन्य प्रेम से निरंतर मेरा चिंतन करता शरीर को त्याग देता है ऐसा मनुष्य दोबारा कभी जन्म नहीं लेता क्योंकि वह मुझे प्राप्त कर चुका होता है अर्थात उसे सदा के लिए मेरे चरणों में स्थान प्राप्त हो जाता है अर्जुन आज से पहले जिन मनुष्यों में राग भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गए थे और मुझे अनंत प्रेम करते थे ऐसे बहुत से भक्त उपयुक्त ज्ञान रूप से पवित्र होकर अब तक मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं जो भक्त जिस प्रकार मुझे याद करते हैं उसी प्रकार उस वक्त को करता हूं कि सबस्क्राइब करते हैं उन्हें इस लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले लोग देवताओं पूजन किया करते हैं ताकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली स्थिति शीघ्र मिल सके इसके बाद श्री कृष्ण कहते हैं कि एग्जाम इस मृत्यु-लोक पर जो मनुष्य को चार वर्णों अर्थात ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र की रचना देखते हो वह भी मेरे ही द्वारा मनुष्य के गुण और कर्मों को देख कर आ गया लेकिन इस प्रकार सृष्टि रचना कर्म करता हूं पर मुझे प्रभजीत को वास्तव में ही कर्मों के फल मेरी कोई इच्छा नहीं है इसलिए मुझे कोई भी नहीं सकता और को में कभी नहीं बनता इसलिए उन्हें भी अपने पूर्वजों के जैसे ही कर्म करो भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्म और अकर्म क्या है और किस प्रकार निर्णय करने में मोहित हो जाते हैं से संबंधित के बारे में बताते हुए कहते हैं है और यदि भगवान कृष्ण द्वारा कही गई बात को अरुण की तरह हम और आप अपने जीवन में शामिल कर लें तो कोई भी मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त हो सकता है पर तो अगर आपको अभी तक पिता का यह ज्ञान पसंद आया हो तो नीचे कमेंट करके अवश्य बताएं और साथ अगर आप हमारे
भगवान कृष्ण ने कर्म और अकर्म से जुड़ी कौन सी बातें बतलाई भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन सभी मनुष्य को कर्म और अकर्म के स्वरूप के बारे में अवश्य जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति और कर्म में अकर्म और अकर्म विकर्म पधान और समस्त कर्मों को करने वाला होता है कि संपूर्ण शास्त्र सम्मत करें और सब्सक्राइब रूप अग्नि द्वारा भस्म हो गए हैं ऐसे मनुष्यों को ज्ञानी से ज्ञानी लोग भी पंडित कहते हैं इसके बाद श्री कृष्ण बताते हैं कि जो मनुष्य फल की इच्छा किए बिना सब कुछ त्याग कर संसार के आश्रय से रहित हो जाता है और परमात्मा में नित्य लगा रहता है वे कर्मों में भली भांति लगा हुआ भी वास्तव में कुछ नहीं करता इसके इलावा जो मनुष्य के अंतःकरण और इंद्रियों सहित अपने शरीर पर विजय प्राप्त कर लेता है और जो समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर देता है ऐसा शहर है तो मनुष्य के वश ही संबोधित करते हुए कोई भी प्राप्त नहीं होता सब्सक्राइब और हर्ष शोक से ऊपर उठ गया हो ऐसा कर्म करता हुआ उससे नहीं बनता है अपने साथी जिस मनुष्य की जा सकती सर्वथा नष्ट हो गई हो जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया हो और जिसका चित्त निरंतर परमात्मा के ज्ञान में स्थिर रहता है ऐसा केवल यज्ञ संपादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के संपूर्ण कर भली भांति विलीन हो जाते हैं जिस युग में अर्पण अर्थात प्रॉब्लम है और हवन किए जाने वाले योगेंद्र अब भी भ्रम है तथा ब्रह्मरूप करता द्वारा ब्रह्म रूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी भ्रम है उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किया जाने वाला यज्ञ फल भी ब्रह्म माना जाता है इसके अलावा योगी जन देवताओं का पूजन यज्ञों का अनुष्ठान किया करते हैं है अर्थात पर-ब्रह्म परमात्मा में ज्ञान द्वारा एक ही भाव से स्थित होना ही ब्रह्मरूप अग्नि में अग्नि द्वारा यज्ञ को हवन करना है इसलिए कुछ योगिजन श्रोत्र आदि समस्त इंद्रियों को संयम रूप अग्नि में हवन किया करते हैं और कुछ योगी लोग शब्द आदि समस्त विषयों को इंद्रिया रूप अग्नि में हवन किया करते हैं सच्चिदानंदघन परमात्मा के सिवाय अन्य किसी का भी न चिंतन करना ही उन सबका हवन करना है इसके बाद श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं हे पृथापुत्र कई मनुष्यत्व द्रव्य संबंधित यज्ञ करने वाले हैं कितने ही तपस्या और ऊपर यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ही योर ग्रुप यज्ञ करने वाले हैं शादी कितने ही मनुष्य स्वयं रूप ज्ञान यज्ञ करने वाले हैं इसके अलावा कितने ही योगी चैन अपान वायु में प्राण वायु को हवन करते हैं वैसे ही अनुपयोगी चैन प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं अर्थात अपन की गति को रोक कर दो रघु प्राणों में ही हवन किया करते हैं यह सभी साधकों द्वारा पापों का नाश करने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं है तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं हे अर्जुन यज्ञ से बचे हुए अमृतानुभव करने वाले योगी जन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञ करने वाले मनुष्यों के लिए तो यह मनुष्य लोग भी सुखदायक नहीं है फिर पर लोग कैसे सूखता है कि हो सकता है इस प्रकार और भी बहुत तरह के योग वेद की वाणी में विस्तार से कह गए हैं उन सबके बारे में जानकर तुम मन इंद्रिय और शरीर की क्रियाओं द्वारा संपन्न होने वाले इस प्रकार तत्त्व से जानकर अनुष्ठान द्वारा तुम कर्मबंधन से सर्वथा मुक्त हो जाओगे परंतु हे परंतप अर्जुन द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ को श्रेष्ठ कहा गया है तथा यावन्मात्र संपूर्ण कर्म ज्ञान में
समाप्त हो जाते हैं उस ज्ञान को तुम तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ लो और यह ज्ञान तो मैं उनको भलीभांति दंडवत् प्रणाम करने से उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से प्राप्त होगा है और जो तुम्हें देवी ज्ञान प्राप्त हो जाएगा तो फिर तुम इस प्रकार के मोह में नहीं फंसते होंगे और फिर तुम्हें मैं अर्थात सच्चिदानंदघन परमात्मा दिखाई देगा ऐसे में यदि तुम अन्य सभी पार्टियों से भी अधिक पाप करते हो तो भी तुम श्याम रूप नौका द्वारा निबंधित संपूर्ण पाप समुद्र से भरी बहुत ही तरस जाओगे क्योंकि अजवाइन जैसे प्रज्वलित अग्नि दोनों को भस्म कर देता है
वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देता है कि इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्म योग द्वारा मनुष्य अपने आप ही आत्मा में पा लेता है जितेंद्रिय साधन प्राण और श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर बिना देरी के तत्काल को विवेकहीन श्रध्दा रहित मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता ऐसे संयुक्त निदेशक नियुक्त और सुख ही है जिसने कर्मियों की विधि से समस्त कर्मों का अर्पण कर दिया और जिसने द्वारा समस्त संसार वश में किए हुए अंतकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं मानते इसलिए उत्तर में स्थित इस अध्ययन ने संयुक्त रूप में स्थित हो और के लिए खड़े हो मित्रों गीता अध्याय 4 लॉर्ड श्री कृष्ण की इसी अनमोल ज्ञान पर आकर समाप्त हो जाता है लेकिन अभी बहुत कुछ बाकी है और उम्मीद करता हूं कि आपको भगवान श्री कृष्ण द्वारा कही गई यह बातें कुछ समझ में आई होगी अगर समझ में आ गई हूं तो इसे खुद तक सीमित न रखें बल्कि दूसरों को भी समझा और वीडियो अच्छी लगी हो तो इसे लाइक और शेयर करें और आज की वीडियो में इतना ही अब हम आपका बहुत-बहुत शुक्रिया है
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भगवान श्री कृष्ण के इन 22 वचनो में छिपा है ? पूरे जीवन का रहस्य || भगवान श्री कृष्ण के इन 22 वचनो में छिपा है ? पूरे जीवन का रहस्य ||
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